#धारा_370_और_आर्टिकल_35_A

परसो सुबह ग्यारह बजे से अब तक पूरा भारत इस अविश्वसनीय खुशी के लिए बधाई ले रहा है और दे रहा है।
मैं भी आप सबको बधाई देती हूँ और आपकी बधाई स्वीकार करती हूँ, मगर कारण यह नहीं है कि अब आप और मैं वहाँ जाकर जमीन खरीद सकते हैं, यह भी नहीं कि अब वहाँ के वासियों को आँख दिखाकर कह सकते हैं कि देखो आखिर तुम हमें भारतीय कहते थे, अब तुम भी वो ही हो गए हो।

छप्पर फाड़ कर मिलने पर मानव बौरा जाता है। हम कुछ बुद्धिजीवियों की मनोदशा भी परसो से ऐसी ही हो गई है। हम इस तरह की पोस्ट लगातार लिख रहे हैं जैसे हमने कश्मीर पर किसी लड़ाई में जीत हासिल करली हो, कोई राज्य हमारा नहीं था उसे हमने हथिया लिया हो, हम आज तक बेघर बैठे हो और वहाँ जमीन खरीदने पर ही हमें सिर पर छत मिलेगी।

जो पहले से डरा है उसे और अधिक डराने का न तो हमें अधिकार है और न ही यह मानवीयता है। कहने के मायने यह है कि सामाजिक संस्था की सबसे छोटी इकाई परिवार होती है। उसके बाद मोहल्ला, गाँव, तहसील, जिला, राज्य आदि क्रमशः बढ़ते जाते हैं। अपने लिए आरक्षित अधिकारों को अनायास किसी और से बाँट लेने की बाध्यता किसी भी इकाई में आसानी से स्वीकार्य नहीं हो सकती।
परिवार में जब बच्चे का जन्म होता है तो वह अकेला पूरे घर की आँखों का तारा होता है। कुछ साल बाद जब कोई और नन्हा आता है, वह भी पूरे परिवार की आँख का तारा हो जाता है। घरवालों की नजर में दोनों बच्चे हाथ की छोटी-बड़ी उंगलियों जैसे होते हैं जिनमें किसी की भी पीड़ा परिवार को हिला देती है किंतु जो पहले से इकलौता सभी अधिकारों के साथ जी रहा था वह अपने प्यार को किसी औऱ के साथ बँटता देखकर बौखला जाता है और इस तरह की हरकतें करता है कि पूरे परिवार की नजरें छोटे को भूलकर उस पर टिकी रहे।

समय के साथ उसका भय जाता है कि वह भी छोटे जितना ही महत्तवपूर्ण है, तब तक माता-पिता धैर्य से काम लेते हैं। हमारे कश्मीरी भाई-बहन आज उसी परिस्थिती में है। उन्होंने पिछले सत्तर वर्षों से अपनी संस्कृति और धरती पर किसी की दखलअंदाजी नहीं देखी है। हम कह सकते हैं कि 90 प्रतिशत कश्मीरियों ने अपने बचपन से ही वहाँ दो झंडे, दो नागरिकता देखी है।

बचपन से देखने के मायने संस्कारों और आचरण में विषय वस्तु का आ जाना होते हैं। वहीं दूसरी तरफ वहाँ एक ऐसा वर्ग भी है जिसके लिए धारा 370 का हटना हमसे कहीं बढ़कर छप्पर फाड़ कर मिलने जैसा है क्योंकि वे कल के सूरज उगने के साथ कदाचित् पहली बार जानेंगे कि नागरिकता के मायने क्या होते हैं, जब उन्हें वोट देने का अधिकार मिलेगा, सरकारी नौकरियाँ मिलेगी और वे अधिकारिक रूप से भारत के नागरिक होने के साथ कश्मीर के नागरिक भी कहलायेंगे। यह दलित वर्ग इस खुशी के बर्दाश्त करने की हालत में भी कदाचित् अभी न हो।

हम जो इस विषय पर कल से इतना कुछ लिख रहे हैं, प्रत्यक्ष रूप से कहीं इससे प्रभावित नहीं है, हमें इन दोनों वर्गों के हितों का ख्याल रखते हुए अपनी बात कहनी चाहिए। सरकार उन्हें बार-बार यकीन दिला रही है कि विकास के जो दरवाजे अब तक बंद थे वे अब खुल गए हैं तो हम यह कहकर या लिखकर उनमें खौफ न पैदा करे कि सस्ता मजदूर और सस्ती जमीन पाने चलो कश्मीर। हाँ, आने वाले समय में जब यहाँ जमीन खरीदकर बड़े-बड़े उद्योगपति औधौगिक इकाइयाँ खोलेंगे और यहाँ के स्थानीय युवा को रोजगार मिलेगा, बड़ी बड़ी होटले खुलेंगी और पर्यटन के बढ़ने से रोजगार बढ़ेगा और घाटी का विकास होगा तब वे खुद कहेंगे कि आओ हमारे यहाँ और निवेश करो।

वर्षों से बनी नकारात्मक मानसिकता को सकारात्मकता में बदलने में वर्षों नहीं लगते, यह बिल्कुल सच है किंतु वह कुछ पलों में भी नहीं बदल सकती। हाँ वह दिनों में बदल सकती है बशर्ते जो खोया है उसके मायने बहुत कुछ पाने के रूप में सामने आये।

हमें चाहिए कि हम उन्हें इतना समय दें। खुशी के पलों को सम्भालना गम के पलों को सम्भालने से भी कई बार अधिक मुश्किल होता है जब वह बहुत बड़ी हो और अप्रत्याशित हो। 

हमारा इरादा बुरा नहीं है, हम कश्मीरियों का बुरा नहीं चाहते, हम भी सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास पर यकीन रखते हैं पर जाने अनजाने में ऐसी हरकतें कर रहे हैं कि हमारे कश्मीरी साथी सरकार के यकीन दिलाने के बाद भी डरे और सहमे हुए हैं।

डर होठों को या तो चुप कर देता है या आक्रोशित कर देता है। हमें चाहिए कि हम संयम रखे और हमारे कश्मीरी भाई-बहनों को नई तरह से जीने की आदत डालने का समय दे। हमारे कश्मीरी पंडितों को पूनः घर वापसी की आत्मीयता के साथ बधाई दे।

हम अगर थोड़ा सा संयम दिखाये तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे कश्मीरी भाई-बहन जय हिंद का नारा लगाते हुए हमसे आगे की पंक्ति मे खड़े दिखेंगे।

जय हिंद. बबिता कोमल जी के फेसबुक पेज से साभार।

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