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Showing posts from December, 2015

हम चाहते क्या हैं?

हमने ब्लॉग की पूर्व की पोस्टों में परम्पराओं व् देखादेखी के दुष्प्रभावों के बारे में पढ़ा आज उन्ही सब बातों को थोडा इस कहानी के माध्यम से और अच्छे से समझने का प्रयास करते हैं।यह कहानी मैंने दैनिक भास्कर के मधुरिमा के अंक से साभार ली है।कहानी इस प्रकार है--      एक बार वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया।उन्होंने एक पिंजरे में चार बन्दर बंद करके एक कोने में केले लटका दिए।अब जब भी कोई बन्दर केलों की तरफ बढ़ता तो उसके साथ-साथ बाकी बंदरों पर भी ठण्डे पानी की बौछार होती।कुछ समय बाद इससे यह हुआ कि कोई एक बन्दर लालच के वशीभूत हो केलों की तरफ कदम बढ़ाता तो शेष तीन बन्दर उस पानी की बौछार के डर से उसे मार पीटकर रोक देते। प्रयोग के दूसरे चरण में वैज्ञानिकों ने एक बन्दर को निकालकर एक नया बन्दर पिंजरे में डाल दिया।अब पानी की बौछार बंद कर दी गई।नया बन्दर स्वाभाविक रूप से केलों की तरफ बढ़ा तो बाक़ी तीन बंदरों ने उसकी जमकर पिटाई कर दी।नए बन्दर को कारण तो समझ में नहीं आया लेकिन वह यह समझ गया कि केलों तरफ नहीं बढ़ना है।इसके बाद एक अन्य पुराने बन्दर को बाहर निकालकर एक नया बन्दर अंदर डाला।उसके साथ भी बाकि तीन

बीमारी है या हौव्वा

 जैसे-जैसे शिक्षा का विस्तार होता जा रहा है व्यक्ति अपने स्वास्थ्य को लेकर भी काफी जागरूक होता जा रहा है ,पहले जहाँ व्यक्ति अज्ञानता के चलते बिमारियों को दैवीय प्रकोप समझ कर उसका सही इलाज नहीं करवा पाता था और अकाल मृत्यु का दंश झेलने पर मजबूर था आज भी कई इलाके ऐसे हैं जो शिक्षा के वास्तविक स्वरुप से वंचित है और उन्ही पुरातन मान्यताओं के अनुसार ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं आज भी उन इलाकों में वैसे ही झाड़ फूंक वाली इलाज की विधियाँ ही प्रचलित है ।लेकिन समय के साथ साथ वहां भी जागरूकता आने लगी है ।जो इलाके शिक्षा में अग्रणी हैं वहां पर स्वास्थ्य के प्रति लोग काफी जागरूक हो रहे हैं लेकिन यही जागरूकता बहुतों बार परेशानियां भी खड़ी कर रही है ।आज का इंसान एक साधारण सी जुकाम को लेकर भी काफी परेशान नजर आता है और खामखा इसको भी स्वाइन फ्लू समझने लगता है उसकी इस परेशानी को बढ़ाने में मीडिया भी अच्छी खासी भूमिका निभाता है किसी शहर में एक डेंगू रोगी मिल जाये तो उसकी खबर मीडिया की सुर्खियां बनती है और इसको इस प्रकार दिखाया जाता है मानो मृत्यु का ही दूसरा नाम डेंगू हो ।जैसे ही मीडिया में खबर छपती है औ

अपेक्षाएं न पालें तो ही अच्छा

मेरा बेटा दुनियां का सबसे आज्ञाकारी बेटा है भविष्य में यह परिवार का नाम रोशन करेगा,मेरे पड़ोसी बहुत अच्छे है कोई भी काम पड़ने पर कभी मना नहीं करते,फला ऑफिस में अपनी जान पहचान के अधिकारी है बस मजे ही मजे हैं इस ऑफिस में रोजाना काम पड़ता है अब तो चिंता की कोई बात ही नहीं है।ये कुछ ऐसी कपोलकल्पित भावनाएं कमोबेस हर व्यक्ति के अंतर्मन में बसी रहती है और ये ही जीवन में दुःखी करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है यदि व्यक्ति इन झूंठी आशाओं से ऊपर ऊठ जाये तो वो कभी दुःखी हो ही नहीं सकता।लेकिन व्यक्ति हमेशा इन अपेक्षाओं को छोड़ना ही नहीं चाहता और सारी सुख सुविधाएँ जुटाने के बाद भी अंदर से दुःखी बना रहता है वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अगर हम नजर दौड़ाएं तो अधिकांश वृद्ध लोग अपनी संतानो से संतुष्ट नजर नहीं आते और यदि वृद्धजन धार्मिक विचारधारा वाले हों तो उनका दुःख और ज्यादा बढ़ा हुआ होगा।यह बात सबको अटपटी जरूर लगेगी लेकिन मेरे विचार से यह सौ टका सही है क्योंकि सभी धर्मग्रंथो में और सभी धर्मगुरुओं के प्रवचनों में बड़े भावुक तरीके से माता पिता की सेवा के पुत्रों के कर्तव्यों का वर्णन किया जाता है

देखा देखी का झगड़ा

अरे अपने पड़ोसी वर्मा जी का बेटा आई ए एस की तैयारी कर रहा है और तूँ जाने कहाँ खोया हुआ है क्या रखा है इन मार्केटिंग की किताबों में जो सारे दिन इन्ही से चिपका रहता है। वास्तव में मैं तो बड़ा ही बदकिस्मत हूँ कल तक मेरे सामने यूँ ही घूमने वाला वो आज कितने बड़े शो रूम का मालिक बना बैठा है मेरी तो यह लाइन ही गलत है इसमें उन्नति की कोई गुंजाइस ही नहीं है। देख वो कितना धर्मात्मा है सुबह उठकर सबसे पहले नहा धोकर मंदिर जाता है उसके बाद ही अपनी दिनचर्या प्रारंभ करता है और एक तू है आदि आदि ऐसे कितने ही किस्से हमें रोजमर्रा की जिंदगी में सुनने को मिलते हैं।और आज जितनी भी परेशानियां,जितनी भी आत्महत्त्याएं हो रही है उन सब का कारण बस इस प्रकार की कहानियां ही है।बेटे की रुचि फिल्मों में काम करने की है माता पिता उसे इंजीनियर बनाना चाहते हैं महज इसलिए की उन्होंने सुन रखा है की इंजीनियरिंग का आजकल बहुत क्रेज है बेटा दुविधा में है दूसरे अन्य लोग भी यही सलाह देते हैं की माता पिता तेरे भले के लिए ही कह रहे हैं तू अभी बच्चा है तू नहीं समझेगा तो तुझे वो ही करना चाहिए जो बड़े लोग कहते हैं और वह बच्चा अपने स

लोग क्या कहेंगे?

यदि मैंने ऐसा नहीं किया या ऐसा करूँगा तो लोग क्या कहेंगे,कहीं मेरी और मेरे परिवार की इज्जत को बट्टा लग गया तो,नाते रिश्तेदारों में मेरी नाक कट गई तो आदि आदि। न जाने मनुष्य के मन में ऐसे ऐसे कितने विचार आते हैं जो उसको गुलामी की और धकेलने का काम तो करते ही हैं साथ ही उसके विकास में भी रोड़ा बनते है।प्रसिद्ध मोटिवेश्नल स्पीकर और अंतरास्ट्रीय ख्याति प्राप्त कम्पनी इमैजिन बाजार के चीफ संदीप माहेश्वरी तो इसे सबसे बड़ा रोग बतलाते हैं उनके शब्दों में "सबसे बड़ा रोग,क्या कहेंगे लोग" कहने का मतलब जो इस लोगों के कहने का विचार करता है वो अपनी जिंदगी की गाड़ी को ही अटका देता है और जो इसकी परवाह नहीं करता वो हर तरह से सफल होता है अरे भाई जब जिन्दगी अपनी है विचार अपने है तो फिर लोगों के कहने से डर कैसा इस दुनियां की जितनी जनसंख्या है उतने ही दिमाग है हर व्यक्ति के सोचने का अपना अलग तरीका है और यह भी सही है की हर व्यक्ति अपने हिसाब से सही ही होता है।क्योंकि जो भी कुछ वो अपने बारे में या हमारे बारे सोचता है में वो अपनी जगह बिल्कुल सही होता है इसी प्रकार हम कुछ करते है तो अपने हिसाब से सही ह

गुरु बनाने की परम्परा

"गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।। महात्मा कबीर दास जी के लगभग 500 वर्ष पूर्व लिखित उपरोक्त दोहे का वर्तमान में जमकर लाभ उठाया जा रहा है।कल से ब्लॉग में परम्पराओं के अंधानुकरण पर चर्चा चल रही है इसी बात को आगे बढ़ाते हुए आज इस प्रचलित दोहे पर थोडा विचार करते हैं।उपरोक्त दोहे में कबीरदासजी ने गुरु की महिमा का बखान करते हुए उसे भगवान से भी ऊँचा दर्जा दिया है और उसे प्रथम वंदनीय बताया है।बात है भी सौ टका सही की गुरु ही हमारा मार्गदर्शक होता है और जो भी हमें मार्ग बताये वो सम्माननीय होना ही चाहिए।अब थोडा परम्परावादी दृष्टिकोण से इस बात पर विचार करते हैं।कबीर के समय में शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल हुआ करते थे जहाँ पर बालक के सर्वांगीण विकास का दायित्व गुरु ही संभाला करते थे वे ही बालक को लौकिक और पारलौकिक जो भी गुरुकुल की व्यवस्था होती थी उसके अनुसार उसके भविष्य का खाका खींचा करते थे इसमें उनका निजी हित न होकर सारा हित बालक का ही हुआ करता था तो जाहिर सी बात है जो व्यक्ति अपना सर्वस्व बालक के हित में समर्पित कर दे वो तो सम्माननीय हो

परम्पराओं में उलझा मानव

लेख को शुरू करने से पहले में लेख के विषय में अपनी स्वयं क़ि सोच के बारे में बतलाना चाहता हूँ क़ि न तो में परम्पराओं का विरोधी हूँ और न ही समर्थक।में उस परम्परा को स्वीकार करने में बिल्कुल भी गुरेज नहीं करता जिनका मेरे वर्तमान जीवन में मुझे कोई फायदा नजर आता हो लेकिन परम्परा को महज इस आधार पर स्वीकार नहीं करता की उसे मेरा परिवार पीढ़ियों से मानता आ रहा है और जिसका वर्तमान में कोई लॉजिक नजर नहीं आता। मुझे कई बार आश्चर्य होता है क़ि द्वापर युग के श्रीकृष्ण से लेकर आज के मानव तक सभी ने इस संसार को निरंतर परिवर्तनशील माना है,यानि क़ि आज से कुछ समय पूर्व जो सत्य था वो आज भी सत्य हो यह जरुरी नहीं होता फिर भी सदियों पुरानी परम्परा को आज भी घसीटा जा रहा है यहाँ तक क़ि कई परिवारों में इनको लेकर आपसी मनमुटाव भी देखने को मिलते हैं यदि सास परम्परावादी हो और बहु थोड़ी वैज्ञानिक सोच वाली हो तो आपसी मनमुटाव स्वाभाविक ही है। चलिए ऐसी ही कुछ प्रचलित परम्पराओं पर विचार करते है।हिन्दू समाज में अमावस्या तिथि को किसी भी शुभ काम के लिए टाला जाता है यदि किसी को यात्रा पर जाना हो यहाँ तक की कई परिवारों में त

एक कटु सत्य

आज हम चर्चा करेंगे उस मुद्दे पर जिसे मानते तो सब है पर व्यवहार में न तो सरकारें और न ही कोई सामाजिक संगठन इस मुद्दे पर गंभीर नजर नहीं आता।मुद्दा है मानव स्वास्थ्य से जुड़ा मेरे कहने का अभिप्राय है कि किसी भी देश को विकसित बनाने में उस देश की जनता का स्वस्थ होना विकास का पहला कारक है।लेकिन इस मामले में हम कितने गम्भीर है इसका आकलन वर्तमान में अस्पतालों की बढ़ती भीड़ को देखकर आसानी से किया जा सकता है।इस मामले में भारत की स्थिति शायद अन्य विकासशील और विकसित देशों के मुकाबले कही ज्यादा गम्भीर है।ऐसा भी नहीं है कि इस मुद्दे पर सोचा ही नहीं जा रहा हो,इस मामले में काफी मंथन चल रहा है और आमजन को स्वस्थ रखने के भरसक प्रयास हो रहे हैं लेकिन प्रयासों के बावजूद बीमारियो के आंकड़े दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं इसके लिए कभी खानपान को तो कभी प्रदूषण को जिम्मेदार बताया जा रहा है लेकिन एक सबसे बडा कारण जिस पर न तो सरकारें और न ही जिम्मेदार अधिकारी ध्यान दे पा रहे हैं वह कारण है अंधाधुंध दवाइयों का प्रयोग और वो भी अपरशिक्छित लोगों के हाथों।यदि किसी का 50 हजार का स्कूटर ख़राब हो जाये तो उसे किसी विश्

आम आदमी चिकित्सक

शरीर रोगों का घर है ऐसा अमूमन कहा जाता है इसका आशय यह है कि वातावरण में अनगिनत कारण हर समय मौजूद रहते हैं जो जीवों के शरीर को रोगग्रस्त करने में सहायक होते हैं ।प्रत्येक जीव के शरीर में मौजूद कुदरती रोग प्रतिरोधक शक्ति इन रोग पैदा करने वाले कारणों को कमजोर करके शरीर को रोगग्रस्त होने से बचाती है जब यह कुदरती शक्ति किन्ही कारणों से कमजोर पड़ जाती है तो हम रोगग्रस्त हो जाते हैं लेकिन शरीर के रोगग्रस्त हो जाने के बाद यह कुदरती शक्ति रोग से अपनी पूरी ताकत से लड़ती है,जब इस शक्ति पर रोग ज्यादा हावी हो जाता है तब हमें अन्य उपाय रोगमुक्त होने के लिए करने पड़ते है।मनुष्य अपनी आदत के मुताबिक अपने रोग की जन जन से चर्चा शुरू कर देता है और फिर शुरू हो जाता है आम आदमी के आम नुस्खे बतलाने का सिलसिला,नुस्खा बताया भी ऐसे जाता है मानो बताने वाला किसी प्रतिष्टित मेडिकल कॉलेज का प्रोफ़ेसर हो।कारण की भारत जैसे देश में तो यहाँ की जितनी जनसंख्या जिस समय होती है उतनी संख्या ही डॉक्टरों की होती है यहाँ पर तो बस किसी के सामने अपने रोग की चर्चा करो तुरंत कोई न कोई नुस्खा हाजिर हो जाता है।और इस इत्मिनान के साथ

आयुर्वेद के नाम से ईलाज का गोरखधंधा

आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति ईलाज की एक प्राचीन चिकित्सा पद्दति है इस चिकित्सा पद्दति की समाज में एक निरापद चिकित्सा पद्दति के रूप में अलग ही पहचान है,इस पद्दति के बारे में लोगों में एक धारणा बनीं हुई है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा से यदि फायदा न भी हुआ तो नुकसान भी कुछ नहीं होता जबकि एलोपैथिक दवाइयों के साइड इफ़ेक्ट होते ही है लोगों की इसी धारणा का फायदा एकमात्र व्यापारिक सोच वाले चिकित्सक, झोला छाप,दवा निर्माता,साधु महात्मा आदि लोग जमकर उठाते हैं।इसके सबसे बड़े उदाहरण समाचार पत्रों,टेलीविजन में आने वाले विभिन्न प्रकार की बिमारियों के इलाज का दावा करने वाले विज्ञापन है वर्तमान में हर सक्स की जुबान पर छाये बाबा रामदेव भी इसी दौड़ में सबसे आगे है।आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्दति से चिकित्सा का सबसे पहला पड़ाव होता है रोगी की प्रकृति की पहचान करना उसके बाद रोग के कारण को समझना और रोगी और उसके बारे में गहन अध्ययन के बाद उसकी प्रकृति के मुताबिक दवा का चुनाव करना ।यदि चिकित्सक रोगी की प्रकृति को जाने बिना अपने रटे रटाए नुस्खों से रोगी की चिकित्सा करता है तो वह रोगी का अहित ही कर रहा होता है और प्रकृति

मनोरोगों के इलाज का सही तरीका

आज हम देखेंगे कि एक मनोरोगी के इलाज में ऐसी कौनसी प्रक्रिया अपनाई जाय जिससे कि रोगी यथासिघ्र रोग से मुक्त होकर सफल जिंदगी जी सके और पैसै की बर्बादी से भी बच सके।   (1)सर्वप्रथम तो यह तय करें और अपने मन में दृढ़ धारणा बना लें कि शरीर में होने वाली किसी भी बिमारी चाहे वो शारीरिक हो या मानसिक सबके पीछे कोई न कोई कारन छुपा होता है उस कारन की पहचान करने का प्रयास करें यदि कारण समझ में आ जाता है तो सर्वप्रथम उस कारन को दूर करने का प्रयास करें यदि कारण को दूर करने में सफलता मिल जाती है तो बीमारी का इलाज स्वतः हो जाता है।             (2)यदि खोजने के बाद भी कारण समझ में नहीं आता है तो फिर अपने किसी विश्वसनीय चिकित्सक की सलाह लेकर उपचार की और कदम बढ़ाएं ।(3)रोग यदि मानसिक हो तो भी इलाज की शुरुआत सर्वप्रथम फिजिसियन से ही करें यदि फिजिसियन किसी मनोचिकित्सक की सलाह दे तो ही मनोचिकित्सक के पास इलाज शुरू करें। (4)इलाज के बारे में अपने चिकित्सक से खुलकर बात करें और उनके दिए गए निर्देशों का पूरी तरह पालन करें (5) मनोरोगों के इलाज में दवा के सही समय और नियमितता का बड़ा महत्त्व है अतः इलाज के शुरुआत में

मनोरोग और अंधविश्वास (2)

कल हमने मनोरोगों के निदान में आने जटिलता को समझा इसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए आज निदान करने के बाद उपचार के दौरान आने वाली परेशानियों पर चर्चा करेंगे।आधुनिक चिकित्सा विज्ञानं ने मनोरोगों के सफल उपचार करने में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है आज इन रोगों का यदि सफल प्रबंधन किया जाये तो ऐसे रोगी पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाते हैं विशेष बात तो यह है कि उपचार में रोगी को दी जाने वाली दवाओ के दुष्प्रभाव भी न के बराबर है जिससे यदि दवा का प्रयोग लंबे समय तक भी करना पड़े तो भी शरीर पर अन्य कोई दुष्प्रभाव की गुंजाइस नहीं रहती लेकिन लोगों में व्याप्त गलत धारणाओं के कारण इनके उपचार में काफी लापरवाही बरती जाती है जिससे रोगी का रोग जटिल हो जाता है और पूरे परिवार के लिए परेशानी का कारण बन जाता है। क्या है वे धारणाये जो रोग के उपचार में बाधक बनती है उन पर क्रमवार चर्चा करते है।  (1)लोगों में धारणा है कि डॉक्टर केवल नींद की दवाएं देते हैं जिनकी लत लग जाती है जबकि वास्तविकता यह है कि वर्तमान में प्रयुक्त दवाओ में नींद आने की कोई परेशानी नहीं होती और दवा का सेवन करते हुए व्यक्ति अपने रोजमर्रा के काम आसानी

मनोरोग और अंधविश्वास

  आज हम मनोरोगों की चिकित्सा में की जा रही गलतियों पर चर्चा करेंगे। मनोरोगों से आशय मनुष्य शरीर में पैदा हुई उन परेशानियों से है जिनकी उत्पति का कारण व्यक्ति की स्वयं की बिगड़ी हुई मानसिक स्थिति होता है।पुराने समय में मनोरोगों को देवी देवता और भूत प्रेत के प्रकोप से होना समझा जाता था ।लेकिन जैसे जैसे शिक्षा का प्रसार हो रहा है लोगों की सोच में भी बदलाव आ रहा है ।चिकित्सा विज्ञान की खोजो ने भी इन रोगों के उपचार का मार्ग प्रसस्त किया है लेकिन इन रोगों की चिकित्सा में कई प्रकार की जटिलताओं और आम आदमी की अनभिज्ञता के कारण आज भी इनकी चिकित्सा होना किसी चुनोती से कम नहीं है ।मनोरोगों की चिकित्सा में आने वाली परेशानियो को हम बिंदुवार चर्चा करेंगे । (1)मनोरोगों की चिकित्सा का सर्वप्रथम पड़ाव तो होता है इन रोगों का सही निदान , anxiety or depression के symptoms को प्राथमिक स्तर पर अन्य शारीरिक रोगों की तरह treat किया जाता है कारण की इनके symptoms भी अन्य रोगों की तरह ही होते है जैसे भूख का कम या ज्यादा लग्न,उल्टियाँ होंना,थकान महसूस होना, नींद का अचानक कम या ज्यादा आना,हाथ पैरो में कमजोरी और दर

समाज में व्याप्त भ्रांतियां और उनके नुकसान

कल हमने बीमारियों से जुड़े कुछ मिथकों के बारे में चर्चा की उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए आज और चर्चा करते हैं।(1)समाज में आज भी एक धारणा बनी हुई है की देसी दवाई के कोई दुष्प्रभाव नहीं होते और इसी धारणा का फायदा उठाते हुए दवा निर्माता अपनी दवा के विज्ञापन में यह मोटे तौर पर लिखते हैं कि दवा शुद्ध आयुर्वेदिक है जिसके कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं है आमजन इसी भ्रम में दवा का प्रयोग कर लेते है की चलो देख लेते है फायदा होगा तो ठीक नुकसान तो कुछ होगा नहीं जबकि वास्तविकता यह है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा रोगी की प्रकृति को ध्यान में रखकर की जाती है यदि दवा के घटक प्रकृति के विरुद्ध हुए तो गम्भीर दुष्परिणाम हो सकते हैं अतःकिसी भी दवा का सेवन मात्र दवा के विज्ञापन को देखकर ही न करें यदि आयुर्वेदिक इलाज ही लेना हो तो किसी योग्य आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह से ही करें। (2)कई रोगी इतने जल्दबाज होते है कि वो किसी भी बीमारी से जितनी जल्दी हो सके छुटकारा पाना चाहते हैं खासकर सर्जिकल मामलों में ऐसा देखा जाता है ।जबकि किसी भीभी बीमारी का उपचार चिकित्सक द्वारा सर्जरी से बताया जाता है तो एकबार जल्दबाजी न करके किसी दूस

बीमारियों से जुड़े कुछ मिथक

आज हम बीमारियों एवं उनके इलाज को लेकर समाज में फैले कुछ मिथकों पर चर्चा करेंगे और उनकी सच्चाई से रूबरू होंगे।    मिथक (1)लोगों में एक धारणा व्याप्त है की अमुक डॉक्टर दवाई बढ़िया देता है जिससे तुरंत इलाज होता है जबकि सच में दवाई कभी भी बढ़िया या घटिया नहीं होती और ये भी जरुरी नहीं होता की हर बीमारी में दवा लेना जरूरी ही होहो बहुत सी बीमारियां सिर्फ थोड़ी बहुत सावधानी बरतने पर शरीर की रोगप्रतिरोधक शक्ति से ही ठीक हो जाती है जरुरी नहीं की हर बीमारी का इलाज ढेर सारी दवा खाने से ही हो। (2)कई बार लोगों से यह कहते हुए सुना जाता है क़ि हमने बड़े बड़े डाक्टरों को दिखा लिया किसी से कोई फायदा नहीं मिला फिर हमारे गांव के डॉक्टर ने ठीक कर दिया तो इसमें हो सकता है गाँव के किसी डॉक्टर ने किसी प्रकार के स्टेरॉयड का प्रयोग किया हो जिसके दूरगामी परिणाम घातक हो  (3)कईयों की यह मान्यता होती है की दवाई लंबे समय तक लगातार नहीं लेनी चाहिये क्यों कि फिर दवा की आदत पड़ जाती है यह सोच हर जगह सही नहीं होती ब्लड्प्रेसर,मधुमेह,थाइरॉइड,जैसी अनेको बीमारियों के लिए दवाई लगातार लेना ही जरुरी होता है और इसमें लापरवाही

सही इलाज

शरीर में किसी बिमारी का प्रवेश होने पर उसका इलाज एक चुनोतिपूर्ण कार्य होता है ।किस बीमारी का इलाज किस प्रकार हो सकता है यह समझ पाना हर व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं होता इसके कारण व्यक्ति अपनी बीमारी का जिक्र अपने मिलने जुलने वाले लोगों से करना शुरू कर देता है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी संमझ के मुताबिक सलाह देता है जिससे व्यक्ति के भर्मित होने की काफी गुंजाइस होती है ।बीमार होने पर जहाँ कमजोर आर्थिक स्थिति का व्यक्ति झोला छाप चिकित्सक के चक्कर में उलझ जाता है वहीं संपन्न व्यक्ति छोटी मोटी बीमारी में भी सीधे विशेषग्यों के पास पहुँच जाता है ये दोनों ही स्थितियां सही नहीं है। कारण की कई बार बीमारी से ज्यादा घातक उसका गलत इलाज लेना होता है।इसके लिए सर्वश्रेष्ठ तरीका यह है की सर्वप्रथम तो अपने मन पर किसी भी प्रकार के डर को हावी न होने दे क्योंकि बीमारी जब मन मस्तिष्क पर हावी हो जाती है तो वह विवेकशून्य कर देती है और बीमार अपने आपको लाचार समझने लगता है और हड़बड़ा जाता है जिससे वह सही निर्णय नहीं ले पाता। बीमार होने पर इलाज के लिए क्या होगी सही प्रक्रिया इसके बारे में अगले ब्लॉग में चर्चा करेंगे। 

ब्लॉग जगत का पहला दिन

ब्लॉग जगत में आज मेरा पहला दिन है इसलिए में आगे बढ़ने से पहले अपने से परिचित कराना चाहता हूँ। मेरी उम्र इस समय 43 वर्ष की है मैंने इन 43 वर्षों में जिंदगी के कई बदलाव देखे हैं।मेरी जिंदगी के ये बदलाव मुझे आश्चर्यचकित कर देते हैं ,मेरा बचपन अभावों में बीता। मेरी माताजी जो हमारे मुहल्ले में एक समझदार औरत मानी जाती थी और लोग उससे विभिन्न मसलों पर सलाह लेने के लिये आया करते थे , लेकिन उसके अन्दर अंधविश्वास कूट कूट कर भरा था आधुनिक चिकित्सा पद्धति से उसे काफी चिढ़ थी ओर वह परिवार मे किसी के भी बीमार होने पर सीधी बुझा कराने पहुंच जाती ओर जो उपचार बुझा वाला बताता उसपर आँख मूंद कर विश्वास कर लेती इसी अंधविश्वास के चलते उसने मेरे जन्म के बाद अपनी 8 संतानों की मौत को देखना पड़ा। आज में अपने माता पिता की इकलौती सन्तान हूँ। मेरी माताजी घर के बाहर जहाँ भी जाती में उसके साथ ही रहता इस कारन मुझे इन बुझा करने वालों का सानिध्य भी बचपन से ही मिलता रहा।जिसके चलते मुझे इन चीजों को बारीकी से समझने का मौका मिला और आज में यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह एक सबसे बड़ा पाखण्ड है।