#धारा_370_और_आर्टिकल_35_A परसो सुबह ग्यारह बजे से अब तक पूरा भारत इस अविश्वसनीय खुशी के लिए बधाई ले रहा है और दे रहा है। मैं भी आप सबको बधाई देती हूँ और आपकी बधाई स्वीकार करती हूँ, मगर कारण यह नहीं है कि अब आप और मैं वहाँ जाकर जमीन खरीद सकते हैं, यह भी नहीं कि अब वहाँ के वासियों को आँख दिखाकर कह सकते हैं कि देखो आखिर तुम हमें भारतीय कहते थे, अब तुम भी वो ही हो गए हो। छप्पर फाड़ कर मिलने पर मानव बौरा जाता है। हम कुछ बुद्धिजीवियों की मनोदशा भी परसो से ऐसी ही हो गई है। हम इस तरह की पोस्ट लगातार लिख रहे हैं जैसे हमने कश्मीर पर किसी लड़ाई में जीत हासिल करली हो, कोई राज्य हमारा नहीं था उसे हमने हथिया लिया हो, हम आज तक बेघर बैठे हो और वहाँ जमीन खरीदने पर ही हमें सिर पर छत मिलेगी। जो पहले से डरा है उसे और अधिक डराने का न तो हमें अधिकार है और न ही यह मानवीयता है। कहने के मायने यह है कि सामाजिक संस्था की सबसे छोटी इकाई परिवार होती है। उसके बाद मोहल्ला, गाँव, तहसील, जिला, राज्य आदि क्रमशः बढ़ते जाते हैं। अपने लिए आरक्षित अधिकारों को अनायास किसी और से बाँट लेने की बाध्यता किसी भी इकाई में
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Showing posts from August, 2019
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#माहवारी_को_टालना_खतरे_की_घंटी मैं जिस विषय पर आज बात करना चाहती हूँ वह आज के दिन देश में चल रहे कुछ अति वायरल मुद्दों जितना प्रसिद्ध नहीं है किंतु देश की आधी आबादी के स्वास्थय से जुड़ा है इसलिए देश के लिए अति महत्तवपूर्ण है। देश की आधी आबादी यानी मातृ शक्ति, माँ..........यानी संतानोपत्ति की अहम क्रिया, यह क्रिया जुड़ी है माहवारी से। माहवारी, वह प्रक्रिया जिसके अभाव में कदाचित् सृष्टि का क्रम ही रुक जाता। आज इस एक शब्द को टेबू के रूप में कुछ इस तरह इस्तेमाल किया जाता है कि आधुनिक पीढ़ी या यूँ कहूँ नारीवादी लोग खून सना सेनेटरी पेड हाथ में लेकर फोटो खींचवाना, नारी सम्मान का पर्याय समझते हैं। कुछ ऐसे परम्परावादी लोग भी है जो काली पॉलीथीन में सेनेटरी पेड को लेकर जाने, उन खास दिनों में महिलाओं और बच्चियों के अलग रहने, घर के पुरुषों से इस बात को छिपाने आदि की वकालत करते हैं। इन दोनों ही समूहों ने, धड़ल्ले से दिखाने और सबसे छिपाने के बीच की एक कड़ी को पूर्णतया गौण कर दिया है। यह कड़ी है तीज-त्यौहार एवं शादी-ब्याह के अवसरों पर माहवारी के समय महिलाओं की मनःस्थिति। कुछ वर्ष पहले तक बह