एक बेटा तो होना ही चाहिए

 सदियों से हमारे समाज में एक धारणा बनी हुई है कि प्रत्येक माता पिता के एक लड़के का जन्म तो होना ही चाहिए।जिसके बेटा नहीं होता उसे अभागा समझा जाता है।लड़के की यह चाहत न चाहते हुए भी परिवार में संतानों की संख्या बढ़ा देती है जो बाद में एक सामान्य आय वाले परिवार की अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने का काम करती है।आजकल तो लड़का पैदा करने के कई नुस्खे भी काम में लिए जाने लगे हैं ।कुछ शातिर प्रकृति के लोग तो इस चीज के विशेषज्ञ बने बैठे हैं और मजे से चांदी कूट रहे है ।बड़े-बड़े पढ़े लिखे लोग लड़के की चाहत में इनकी सेवाएं लेने से नहीं चूकते।उन भले मानसों को यह नहीं पता की लिंग का निर्धारण x और y क्रोमोसोम से निर्धारित होता है जिसे दुनिया की कोई दवा निर्धारित नहीं कर सकती ।इनका खेल केवल संभावना के सिद्धान्त के आधार पर चलता है।जब इनकी दवा के प्रयोग के बाद लड़का पैदा हो जाता है (जिसकी 50% संभावना तो हमेशा होती ही है)तो यह उसे एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते है ।और जब परिणाम विपरीत आता है तो दवा के प्रयोग करने में गलती होना बताकर या उसकी किस्मत ख़राब बताकर सारा दोष प्रयोग करने वाली महिला का बता देते हैं।जब सब प्रयासों के बाद भी लड़का पैदा नहीं होता तो महिला अपने आपको कोसती है और यदि वो खुद समझदार हुई तो दूसरे लोग विशेषकर महिलाएं बात बात पर उसे यह एहसास दिलाती रहती है की तेरे पास वो चीज नहीं है जिसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है।इस चर्चा के बाद मेरा प्रश्न है कि आखिर लड़का होना क्यों जरुरी है? तो इस प्रश्न के ये जबाब मिलेंगे (1)लड़के से ही वंश चलता है (2)लड़का बुढ़ापे का सहारा होता है लड़की तो पराई होती है (3)धर्मशास्त्रों में पुत्रवती माता को ही मंगलकारी कहा है (4) बिना पुत्र के माँ बाप की मुक्ति संभव नहीं होती आदि आदि ।अब में इन महापुरुषों से पूछना चाहता हूँ की वंश चलाने की बात करने वाले कितने लोगों को अपने सड़ दादा का नाम याद है। सड़ दादा की छोडो वर्तमान पीढ़ी को तो पड़ दादा का नाम भी नहीं मालुम।बुढ़ापे के सहारे की बात करने वालों क्या आप दावा कर सकते है की हर बेटा बुढ़ापे में सहारा देता ही है ।में आपको ऐसे सैंकड़ो नाम गिना सकता हूँ जिनका बुढ़ापा उनके बेटों के कारण ख़राब हो रहा है और आज वे अपनी बेटियों के सहारे जी रहे हैं।धर्मशास्त्रो  की दुहाई देने वालों से मेरा कहना है कि यदि आपको कोई सबसे बड़ा झूंठ ढूँढना हो तो वो आपको इन्ही ग्रंथों में मिलेगा।यदि धर्मग्रन्थ ही प्रमाण होते तो आज विश्व में अलग अलग सम्प्रदाय पैदा नहीं होते और न ही स्वामी दयानंद, राजाराम मोहनराय जैसे अनेक सुधारकों को संघर्ष करना पड़ता।रही बात मुक्ति मिलने की तो ए पी जे अब्दुल कलाम जैसे अनेक ऐसे दिग्गजों की जिन्होंने इन दकियानूसी विचारों पर कभी ध्यान नहीं दिया,अगर पत्नीऔर बेटे के अभाव मेंउनकी मुक्ति नहीं होगी तो फिर एक साधारण इंसान की मुक्ति न हो तो क्या फर्क पड़ता है।इतनी चर्चा से शायद आप सोच रहे होंगे कि मेरे लिए बेटे का कोई महत्त्व नहीं है तो में स्पष्ट कर दूँ कि मेरे लिए बेटा और बेटी दोनों का ही समान महत्व है कारण कि सृष्टि के सफल सञ्चालन हेतु दोनों का संतुलन जरुरी है ।लेकिन किसके यहाँ लड़का पैदा होगा और किसके यहाँ लड़की इसका निर्धारण हमारे वश में नहीं है और न ही इस बात की कोई गारन्टी है कि जिसके यहाँ बेटा है उसकी जिंदगी सुखी है और बेटी वाला दुखी है।तो मेरे इस लेख का अभिप्राय यह है की जो चीज हमारे वश में न हो उसके लिए कभी विचार नहीं करना चाहिए और जो प्रकृति से हमें मिला है उसका आनन्द लेना चाहिए।दुनियां क्या कहती है उसे कहने दे और अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से जियें क्योंकि कहा भी है "जिसमे जितनी बुद्धि है उतना देय बताय, उसका बुरा मत मानिये और कहाँ से लाय।।" 

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