माहवारी क्या है?

माहवारी 10-12 उम्र से शुरू होकर 45-50 साल तक स्त्रियों के शरीर में होने वाली स्वाभाविक बायोलॉजिकल प्रक्रिया है! इस प्रकिया में मानव शिशु बनने के लिए अनिवार्य अंडा बनता है और उस अंडे के निषेचित होने के बाद उसके पोषण के लिए आधार (परत) तैयार होता है! लेकिन जब अंडा उस माह निषेचित नहीं होता तो अंडे समेत ये परत शरीर से बाहर स्रावित कर दी जाती है जिससे कि यही प्रक्रिया अगले महीने फिर दोहरायी जा सके! इसी स्राव (जो 4 से 5 दिन तक होता है) को मासिक स्राव कहते हैं! बस इतनी सी बात है! यह एकदम प्राकृतिक प्रक्रिया है जो अगर न घटित हो तो हम आपमें से कोई नहीं होता! माहवारी कोई बीमारी नहीं, बल्कि स्त्री देह के स्वस्थ होने का प्रतीक है. ये स्राव न तो ‘अशुद्ध’ होता है और न ही अनहाइजीनिक!

इससे जुड़ी भ्रांतियां और अंधविश्वास:

हमारे समाज में माहवारी को जैसे महामारी ही बना दिया गया है: पूजा मत करो वरना भगवान गंदे हो जायेंगे, गाय को मत छुओ वरना वो बछड़ा पैदा नहीं कर सकेगी, पौधों को मत छुओ वरना उनमें फल नहीं आयेंगे, अचार मत छुओ वरना ख़राब हो जायेगा, किसी देव स्थान या पवित्र जगह पे मत जाओ वरना सब अपवित्र हो जायेगा, शीशा मत देखो उसकी चमक फीकी पड़ जाएगी, मासिक स्राव वाला कपड़ा छुपा के रखो कोई देख लेगा तो? इसके बारे में घर में सिर्फ़ माँ या बहन से बात करो और किसी से नहीं! समाज में माहवारी के लाल धब्बों को लेकर बहुत ही घटिया मानसिकता है! मैंने तो यहाँ तक सुना है कि शहरों में कुछ घरों में धार्मिक कर्मकाण्डों के लिये माहवारी को दवा द्वारा थोड़ा आगे खिसका देते हैं!
हालाँकि कुछ समाजों में पहली माहवारी पे लड़कियों को पूजा जाता है और इस प्रक्रिया को शुभ माना जाता है तो कुछ एक समाजों में घर के दक्षिण में किसी छोटे से दड़बे में दो-तीन दिन के लिए लड़की को बंद कर दिया दिया जाता है! लेकिन अधिकांश तथाकथित ‘सभ्य’ समाजों में ये आज भी माहवारी के साथ शर्म, कल्चर ऑफ़ साइलेंस, अपशकुन, अपवित्रता, अशुद्धता जैसे अंधविश्वास और मिथक जुड़े हैं!

इन भ्रांतियों और अंधविश्वासों का सामाजिक असर:

दरअसल माहवारी स्वास्थ्य का मामला है! इससे जुड़ा शर्म, अंधविश्वास, छिपाने की मजबूरी इसे घातक रूप दे देती है! साफ़ कपड़ा अथवा पैड इस्तेमाल न करने से संक्रमण हो सकते हैं. ये मानवाधिकार का भी मामला है क्योंकि इसके साथ साथ जुड़ी भ्रांतियां, अंधविश्वास, तिरस्कार, भेदभाव इत्यादि व्यक्तिगत स्वतंत्रता व सम्मान के ख़िलाफ़ हैं! इसके कारण समाज अक्सर महिलाओं की ‘मोबिलिटी’ कम कर देती है, जेंडर-रोल्स तय करता है! ये समाज में महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानने की एक अवैज्ञानिक परंपरागत धार्मिक-मर्दवादी सोच है! आज भी मेडिकल स्टोर से सेनेटरी पैड खरीदने में झिझक देखी जाती है! डॉक्टर सेनेटरी पैड काले रंग की पॉलिथीन में देता है! घर में सेनेटरी पैड पापा या भाई से कम ही मंगाया जाता है! इन सबके कारण आज भी ग्रामीण इलाकों में बहुत सी लड़कियाँ/महिलायें सेनेटरी पैड इस्तेमाल ही नहीं करतीं! 
औसतन 28 दिन की इस प्रकिया से कुल आबादी की 53% स्त्रियाँ गुज़रती हैं! ग्रामीण इलाकों में लड़कियों के स्कूलों से ड्रापआउट के कारणों में माहवारी को छुपाने तथा इससे जुडी स्वास्थ्य सुविधायें या अलग टॉयलेट न होना भी एक बड़ा कारण है! महिला शिक्षकों या कर्मचारियों को आये दिन असहज इसके कारण असहज अथवा शर्मिंदा होना पड़ता है, कामचोरी का आरोप अलग से! किशोरावस्था व प्रौढावस्था में मासिक स्राव के कारण क़रीब 60% महिलाओं को दर्द हो सकता है लेकिन इससे जुड़ा शर्म, तिरस्कार, अपवित्रता कि सोच इसे स्त्रियों के ऊपर अत्याचार में बदल देता है.

हमें क्या करना चाहिए?

ये सोच बदलना होगा! हम सबको! घर में अपने बच्चों को इसके बारे में बचपन से ही बताना शुरू करें! इतना जागरूक करिए कि जैसे सर दर्द के लिए हम डॉक्टर से क्रोसिन माँगते हैं उसी तरह सेनेटरी पैड मांग सकें! इतना कि भाई बहन के लिए, पिता बेटी के लिए बेझिझक पैड ला सके! बहन खुलकर ये बात भाई और बाप से कह सके! फैमिली में माहवारी के दौरान होने वाला चिड़चिड़ापन, दर्द, मूड स्विंग, क्रंप आदि पर बात करना चाहिए ताकि बेटा आगे चलकर समाज में किसी भी स्त्री के प्रति संवेदनशील बन सके! पुराने घटिया सोच, अंधविश्वास, भ्रान्ति को दूर करें! टैम्पोन, पैड, घर में बने साफ़ कपड़ों का नैपकिन, मेन्स्त्रुअल कप इत्यादि के बारे में जानकारी बढायें! डॉक्टर से सलाह लें और साथ बेटी और बेटे दोनों को ले जायें!
समाज को इतना सहज बनाना होगा कि कोई स्त्री माहवारी के दौरान परेशानी होने पर बेझिझक सीट माँग सके! और अगर लाल धब्बा दिख भी जाये तो हाय-तौबा के बजाय नॉर्मल बात हो! ताकि जब कभी किसी ऑफिस या संस्था में कोई लड़की माहवारी के दर्द के चलते छुट्टी माँगे तो उसपे ताने न कसे जायें, उसपे कामचोरी का बेहूदा इल्ज़ाम न लगे! माहवारी जैसी प्राकृतिक प्रकिया के कारण अगर स्त्री को समाज में सिमटकर चलना पड़े, शर्मिंदगी उठानी पड़े, या असहज होना पड़े तो ये किसी भी समाज के लिए शर्मनाक है! जिस प्रकिया के द्वारा पूरी मानव जात पैदा होती है उसको अपवित्र या अशुद्ध कहना समाज का दोगलापन है! इसे अपवित्र और अशुद्ध कहके आधी आबादी को नीचा दिखाना हुआ! बच्चा जब पैदा होता है तो यही रक्त बच्चे के कान, मुँह, नाक में घुसी होती है जिसको नर्स या दाई उंगली डालके निकालती है. हर बच्चा इसी में सना पैदा होता है! तो सोचो ये अपवित्र या तिरस्कार योग्य चीज़ कैसे हो सकती है? यह स्त्री जननांगों की एक स्वाभाविक जैववैज्ञानिक प्रक्रिया है. ये न तो बीमारी नहीं और न ही समस्या है! इसका धर्म से कोई लेना देना नहीं!


Comments

Popular posts from this blog

एक बेटा तो होना ही चाहिए

गलती करना मानव का स्वभाव है