क्या यही है धर्म का स्वरूप

पिछली शताब्दी में महान् दार्शनिक नीत्शे ने कहा था-ईश्वर मर चुका है।बहरहाल ईश्वर तो नहीं मरा अलबत्ता नीत्शे अवश्य स्वर्ग सिधार गए।इधर खबरें आ रही है कि दुनियां में 9 देश ऐसे है जहाँ धर्म ख़त्म होने के कगार पर है।धर्म ख़त्म होने का एक अर्थ ईश्वर का लोप होना भी हो सकता है क्योंकि धर्म ही है जो इंसान को ईश्वर से जोड़ता है।एक नास्तिक आदमी के लिए जो ईश्वर में विश्वास ही नहीं रखता उसके लिए ईश्वर के न होने या फिर यूँ कहे कि ईश्वर के जीने-मरने का कोई मतलब ही नहीं है।इस खबर को पढ़ कर कोई आश्चर्य नहीं हुआ।आश्चर्य तो तब होता जब यह समाचार आता कि जिन देशों में धर्म समाप्त होने के कगार पर है वहां धर्म परायणता बढ़ने की बात होती।जिन 9 देशों के लोगों का धर्म से मोह भंग हो रहा है वे सब समृद्ध है।वहां लोगों का जीवन स्तर हमसे कहीं बढ़िया है।वहां के लोगों की गिनती हमसे ज्यादा ईमानदारों में होती है।इन देशों में भृष्टाचार भी औरों स काफी कम है।स्विट्जरलैंड, न्यूज़ीलैंड,कनाडा,नीदरलैंड और ऑस्ट्रेलिया तो ऐसे देश है जहाँ बसने के लिए दुनिया वाले लालायित रहते है।एक मजेदार बात देखिये इन समृद्ध,सुखी,और यायावर देशों में धर्म लगभग ख़त्म हो रहा है और भारत जैसे गरीब, बेरोजगार और विपन्न देशों में बढ़ रहा है।आप चाहे तो किसी भी मंदिर,मस्ज़िद,गिरिजाघर,गुरूद्वारे के सामने खड़े होकर नज़ारा देख सकते है।कितनी विचित्र बात है कि जैसे-जैसे यहाँ धार्मिकों की संख्या बढ़ रही है वैसे-वैसे ही बेईमान,भ्रष्टाचारियों और दरिन्दो की गिनती में भी इजाफा हो रहा है।एक बेईमान अफसर या नेता सुबह-सुबह घंटों पूजा पाठ करता है और दफ्तर पहुंचते ही माल खींचने में जुट जाता है।शाम को घर जाने से पहले धार्मिक स्थल पर जाता है और अपनी दिनभर की कमाई का एक अंश ईश्वर के चरणों में रख शेष अन्ययोपार्जित कमाई को पवित्र करा लेता है।दूसरी तरफ मजहब के नाम पर ऐसे मुजाहिदीन तैयार किये जा रहे है जो आत्मघात करके जन्नत का टिकिट कटाते ही है साथ ही कई बेगुनाहों को भी अपने संग घसीट ले जाते है।उन्हें बरगलाया जाता है क़ि अगर मजहब के नाम पर मर खप गए तो जन्नत में खाने के लिए छप्पन भोग और झाँकने के लिए हुर्रे मिलेगी।अब एक भूखे को और क्या चाहिए? यह बातें कहीं यह तो नहीं दर्शाती कि धर्म और गरीबी का चोली दामन का साथ है।   बेचारे गरीब को यह व्यवस्था जब रोजगार,रोटी और दवा दारू मुहैया करा नहीं पाती तब वह धर्म के कंधे पर सर रखने को मजबूर हो जाता है।और जिनका पेट भरा है,जो सुख सुविधा में जी रहे है उनके यहाँ धर्म ख़त्म होने की कगार पर है।महान राजनीतिक विचारक कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम बताया था और शायद उन्होंने गलत कतई नहीं कहा था।   (यह लेख राजस्थान पत्रिका के बात-करामात स्तम्भ से लिया गया है और मेरी विचारधारा से मेल खा रहा है)

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