कुछ बने,न बनें इन्हें जीने दो
नंबरों की लड़ाई बच्चों को एक अंधे कुएं की और दखेल रही है।उनमे अवसाद के साथ-साथ ईर्ष्या का भाव भी पनपा रही है।क्या ऐसी ही हताश-निराश और ईर्ष्यालु बचपन और जवानी की उम्मीद हमें है?अब भी वक्त है,सँभालने का।खींच लाइए उन्हें इस लड़ाई से और अच्छी तरह से समझा दीजिये की यह पढाई है,कोई जीवन मरण का प्रश्न नहीं।पढाई पूरी जिन्दगी का एक छोटा सा हिस्सा है,उससे ज्यादा जरुरी है उनका मजबूत व्यक्तित्व और जिम्मेदार नागरिक होने की काबिलियत।A के बाद A+,हर परीक्षा में बच्चों को कामयाब कराने की आपकी यह भूख बच्चों पर बहुत भारी पड़ रही है।कोटा में कोचिंग कर रहे बच्चों की आत्महत्या का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है।यह बेहद डरावना है।माता-पिता की महत्वाकांक्षी प्रवर्ति बच्चों की बलि ले रही है।स्कूली बच्चों की परीक्षाये और बोर्ड की परीक्षाये सिर पर है।घरों में इन दिनों अघोषित कर्फ्यू लागू हो चूका है।बच्चों का खेलना-कूदना सब बंद है।एक बार फिर सोचें ऐसे माहोल पर।कहीं ऐसा न हो की आपकी यह बेहूदी अपेक्षा बच्चे का भविष्य अंधकार में कर दे।बच्चा कुछ बने या न बने,कम से कम उसे खुले आसमान में जीने तो दो।परीक्षाओ में उच्च अंक लाना ही जीवन में सफलता की गारंटी नहीं है।
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