हम चाहते क्या हैं?

हमने ब्लॉग की पूर्व की पोस्टों में परम्पराओं व् देखादेखी के दुष्प्रभावों के बारे में पढ़ा आज उन्ही सब बातों को थोडा इस कहानी के माध्यम से और अच्छे से समझने का प्रयास करते हैं।यह कहानी मैंने दैनिक भास्कर के मधुरिमा के अंक से साभार ली है।कहानी इस प्रकार है--  
   एक बार वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया।उन्होंने एक पिंजरे में चार बन्दर बंद करके एक कोने में केले लटका दिए।अब जब भी कोई बन्दर केलों की तरफ बढ़ता तो उसके साथ-साथ बाकी बंदरों पर भी ठण्डे पानी की बौछार होती।कुछ समय बाद इससे यह हुआ कि कोई एक बन्दर लालच के वशीभूत हो केलों की तरफ कदम बढ़ाता तो शेष तीन बन्दर उस पानी की बौछार के डर से उसे मार पीटकर रोक देते। प्रयोग के दूसरे चरण में वैज्ञानिकों ने एक बन्दर को निकालकर एक नया बन्दर पिंजरे में डाल दिया।अब पानी की बौछार बंद कर दी गई।नया बन्दर स्वाभाविक रूप से केलों की तरफ बढ़ा तो बाक़ी तीन बंदरों ने उसकी जमकर पिटाई कर दी।नए बन्दर को कारण तो समझ में नहीं आया लेकिन वह यह समझ गया कि केलों तरफ नहीं बढ़ना है।इसके बाद एक अन्य पुराने बन्दर को बाहर निकालकर एक नया बन्दर अंदर डाला।उसके साथ भी बाकि तीन बंदरों ने पिटाई वाला व्यवहार किया।इस पिटाई में पिछली बार वाला नया बन्दर भी शामिल था, हालाँकि उसे नहीं मालूम था कि पिटाई क्यों की जा रही है।इस तरह एक-एक कर बन्दर बदले जाते रहे।एक स्थिति में पिंजरे में सारे बन्दर नए हो गए।यानि उन्हें पता ही नहीं था कि केले की तरफ बढ़ने पर पानी की बौछार झेलनी पड़ती थी।यह बौछार कब की बंद हो चुकी थी,फिर भी वे परम्परा से हर नए बन्दर को केलों की तरफ बढ़ने से रोकते थे।  इस प्रकार हमारा व्यवहार भी बंदरों की तरह होता है।हम यह नहीं जानते की हम जो कर रहे है,उसके पीछे कारण क्या है? वास्तव में हम क्या चाहते हैं।हम नोकरी कर रहे हैं या कोई भी काम कर रहे है,लेकिन क्यों? उससे हम क्या चाहते हैं?पता नहीं।अपने ही बारे में जानकारी की कमी के कारण हमेशा दुखी रहते हैं,और इधर उधर भटकते रहते हैं।हम दूसरों की देखादेखी इच्छाएं पालते हैं उसके पास फला चीज है,वह उच्च पद पर कार्यरत है,तो हमें भी होना चाहिए।इन सबसे इच्छाएं तो पूरी हो सकती है लेकिन संतुष्टि नहीं मिल पाती।संतुष्टी के लिए पहले यह जानना जरुरी है कि हम चाहते क्या है? और यह भी जरुरी है की चाह हमारी अपनी हो,किसी और के हिसाब से ना हो।यदि उन बंदरों की जैसे ही बिना कारण के देखादेखी से क्रिया करते रहे तो  जीवन भर भटकना ही पड़ेगा।इस भटकाव से बचाने के लिए कोई भी देवी देवता काम नहीं आएगा। तो उठो जागो और जो भी करो अपनी अंदर की आवाज को सुनकर करो।पीढियां क्या कर रही थी उनकी वो जाने।उन महिलाओं के जैसे मत बनो जिनसे पूछा जाता है की आप अमुक तिथि या अमुक वार को सिर क्यों नहीं धोती तो रटा रटाया जवाब होता है मेरी माँ और मेरी सासू भी नहीं धोती थी इसलिए हम भी नहीं धोती।

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