बीमारी है या हौव्वा

 जैसे-जैसे शिक्षा का विस्तार होता जा रहा है व्यक्ति अपने स्वास्थ्य को लेकर भी काफी जागरूक होता जा रहा है ,पहले जहाँ व्यक्ति अज्ञानता के चलते बिमारियों को दैवीय प्रकोप समझ कर उसका सही इलाज नहीं करवा पाता था और अकाल मृत्यु का दंश झेलने पर मजबूर था आज भी कई इलाके ऐसे हैं जो शिक्षा के वास्तविक स्वरुप से वंचित है और उन्ही पुरातन मान्यताओं के अनुसार ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं आज भी उन इलाकों में वैसे ही झाड़ फूंक वाली इलाज की विधियाँ ही प्रचलित है ।लेकिन समय के साथ साथ वहां भी जागरूकता आने लगी है ।जो इलाके शिक्षा में अग्रणी हैं वहां पर स्वास्थ्य के प्रति लोग काफी जागरूक हो रहे हैं लेकिन यही जागरूकता बहुतों बार परेशानियां भी खड़ी कर रही है ।आज का इंसान एक साधारण सी जुकाम को लेकर भी काफी परेशान नजर आता है और खामखा इसको भी स्वाइन फ्लू समझने लगता है उसकी इस परेशानी को बढ़ाने में मीडिया भी अच्छी खासी भूमिका निभाता है किसी शहर में एक डेंगू रोगी मिल जाये तो उसकी खबर मीडिया की सुर्खियां बनती है और इसको इस प्रकार दिखाया जाता है मानो मृत्यु का ही दूसरा नाम डेंगू हो ।जैसे ही मीडिया में खबर छपती है और उस दौर में जो भी कोई हल्की फुल्की हरारत महसूस करता है अपने आपको डेंगू रोगी समझ बैठता है अगर वो स्वयं न भी माने तो परिजन और मिलने जुलने वाले लोग मनवा देते हैं।दिमाग का यह फितूर उसे परेशान कर डालता है और यदि चिकित्सकीय जाँच में डेंगू निकल जाता है तो फिर स्थिति बड़ी अजीबो गरीब होती है डॉक्टर के मना करने के बावजूद भर्ती करने का दबाव डॉक्टर पर बनाया जाता है परिजन सभी रिश्तेदारों को फ़ोन से सुचना देने लगते है और मिलने जुलने का सिलसिला शुरू होता है प्रत्येक मिलने आने वाला अपनी बिन मांगी सलाह थोप जाता है पुरे परिवार की स्थिति ऐसी नजर आती है मानो कोई दुःख का बहुत बड़ा पहाड़ ही टूटकर गिर पड़ा हो।डेंगू का तो यह एक उदाहरण मात्र है ।मीडिया में चाहे स्वाइन फ्लू की छपे या वायरस जनित अन्य किसी रोग की सभी का एक हौव्वा बन जाता है होता यह है कि इन बीमारियों का फैलाव ऐसे समय में होता है जिस समय मौसम परिवर्तन हो रहा होता है जब भी ऐसा होता है उस समय वातावरण वायरस के लिए अनुकूल होता है और शरीर भी इस ऋतु परिवर्तन के अनुकूल ढलने में थोडा समय लेता है तो सर्दी जुकाम बुखार जैसे रोगियों की संख्या में एकाएक बढ़ोतरी हो जाती है जो एक सामान्य स्थिति होती है अब यदि इनमे से एक आधा प्रतिशत थोड़ी सी जटिलता वाले हो तो इसका मतलब यह तो नहीं होता की सभी के सभी जटिल हो और मानो किसी को ऐसी कोई बीमारी हो भी तो क्या हो गया सही चिकित्सक की सलाह ले ली और उसके निर्देशानुसार दवाइयाँ ले ली जाये और मस्त रहा जाये। कोई भी चिकित्सक यह नहीं चाहता की उसके पास आने वाले रोगी को कोई खतरा हो वह जो भी सलाह देगा रोगी के हित की ही देगा लेकिन यदि रोगी फिर भी बेवजह डरा हुआ होगा तो फिर उसकी भी मजबूरी होगी और हो सकता है की रोगी और उसके परिजनों की संतुष्टी के लिए अनावश्यक दवाइयाँ और इलाज देना पड़े ।यह बात सदैव ध्यान रखें की बीमारी से ज्यादा खतरनाक उसका गलत इलाज होता है और बेतुकी हड़बड़ाहट हमेशा व्यक्ति का विवेक छीन लेती है जिसका शिकार चिकित्सक भी हो जाता है। अतः सारांश यह है कि मीडिया में प्रकाशित रोगों से सम्बंधित समाचार या विज्ञापन को देखकर भ्रमित होने से बचें और बीमारी चाहे कैसी भी हो उसका हौव्वा न पालें अधिकांश रोगों का तो शरीर खुद ही इलाज कर लेता है बस जरुरत होती है सही सलाह की तो जब भी कोई रोग सताए तो सही चिकित्सक के पास से सलाह ले और मस्त रहे होगा सो देखा जायेगा ।

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