अपेक्षाएं न पालें तो ही अच्छा

मेरा बेटा दुनियां का सबसे आज्ञाकारी बेटा है भविष्य में यह परिवार का नाम रोशन करेगा,मेरे पड़ोसी बहुत अच्छे है कोई भी काम पड़ने पर कभी मना नहीं करते,फला ऑफिस में अपनी जान पहचान के अधिकारी है बस मजे ही मजे हैं इस ऑफिस में रोजाना काम पड़ता है अब तो चिंता की कोई बात ही नहीं है।ये कुछ ऐसी कपोलकल्पित भावनाएं कमोबेस हर व्यक्ति के अंतर्मन में बसी रहती है और ये ही जीवन में दुःखी करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है यदि व्यक्ति इन झूंठी आशाओं से ऊपर ऊठ जाये तो वो कभी दुःखी हो ही नहीं सकता।लेकिन व्यक्ति हमेशा इन अपेक्षाओं को छोड़ना ही नहीं चाहता और सारी सुख सुविधाएँ जुटाने के बाद भी अंदर से दुःखी बना रहता है वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अगर हम नजर दौड़ाएं तो अधिकांश वृद्ध लोग अपनी संतानो से संतुष्ट नजर नहीं आते और यदि वृद्धजन धार्मिक विचारधारा वाले हों तो उनका दुःख और ज्यादा बढ़ा हुआ होगा।यह बात सबको अटपटी जरूर लगेगी लेकिन मेरे विचार से यह सौ टका सही है क्योंकि सभी धर्मग्रंथो में और सभी धर्मगुरुओं के प्रवचनों में बड़े भावुक तरीके से माता पिता की सेवा के पुत्रों के कर्तव्यों का वर्णन किया जाता है और इसे ही स्वर्ग मोक्ष का दरवाजा बताया जाता है जिसका वृद्धजनों पर बिल्कुल उल्टा असर होता है और अपनी संतान को लेकर उनकी अपेक्षाएं और ज्यादा बढ़ जाती है और जब वे पूरी नहीं हो पाती तो उनके दुःखो का कारण बनती है यदि इसके विपरीत हर बुजुर्ग को यह समझाया जाये कि आपने जो संतान का पालन पोषण किया उसका कई गुना प्रतिफल उस बालक ने आपको अपने बचपन की मासूमियत से आपको खुश करके चूका दिया है और आज भी वो अपने पारिवारिक दायित्वों के साथ आपका भी कितना ख्याल रखता है तो शायद उन वरिष्ठजनों का बुढ़ापा उमंगोभरा होगा।और न ही कोई परिवार में टकराव की स्थिति बनेगी और परिवार ही स्वर्ग बन जायेगा।संसार के आपसी रिश्तों में यदि प्रेम बढ़ाना हो तो अपेक्षाओं को दूर ही रखना होगा और एक दूसरे का सहयोग एकमात्र कर्तव्य समझ कर करना होगा ।आर्ट ऑफ़ लिविंग के प्रणेता श्री श्री रविशंकर जी की जीवन जीने की कला का पहला महत्वपूर्ण सूत्र यही है की "अपेक्षा हमेशा जीवन का आनंद कम करती है"आजकल आए दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित आत्महत्या के समाचारों में आत्महत्या का एकमात्र कारण यही अपेक्षा होती है।विद्यार्थी ने पूरी तैयारी के साथ परीक्षा दी और किसी कारणवश एक आधा प्रतिशत नंबर कम आ गए तो आत्महत्या जैसा कदम उठाना आज आम बात हो गई है इसी प्रकार शादी के बाद ससुराल में अपेक्षानुरूप माहौल नहीं मिला तो तलाक होना भी एक आम बात हो गई है।यदि अपेक्षा न पालते हुए अपने कर्तव्य को कर्तव्य समझकर पुरे मनोयोग से किया जाये और परिणाम चाहे जो हो उसे प्रसन्नता के साथ स्वीकार किया जाये तो बस आनंद ही आनंद है। मैंने वर्ष 2004 में राजस्थान पत्रिका समाचार पत्र के लिए संवादाता के रूप में कार्य शुरू किया था उस समय तत्कालीन शाखा प्रबंधक श्री दीपचंद जी गुप्ता से जब मेरी पहली मुलाकात हुई तो उन्होंने अपना पहला वाक्य कहा कि "जीवन में कभी सम्मान पाने की इच्छा मत रखना बस काम ऐसा करना की दूसरा सम्मान देने पर मजबूर हो जाये"उनका यह एक वाक्य मेरा प्रेरणास्रोत बना हुआ है जब तक संवादाता के रूप में कार्य किया अपना कर्तव्य समझकर और पूरी निष्ष्पक्ष भूमिका में किया तो सम्मान स्वतः ही मिलता रहा और आज भी उनका वो सन्देश मेरे जेहन में उसी प्रकार बसा हुआ है।तो मेरे कहने का मतलब यही है कि यदि मानव अपने माता पिता ,पुत्र पुत्री,पडोसी,नाते रिश्तेदार, यानि पुरे समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन बिना किसी अपेक्षा के करने लगे तो बहुत सी समस्याओं के निराकरण के साथ इसी संसार में कल्पनाओं में बसा स्वर्गलोक नजर आने लगे।हमारे शास्त्रकारों ने एक और अजीब सूत्र का वर्णन किया है वो है पत्नी का पतिव्रता होना जरुरी है और वो उसका सबसे बड़ा धर्म है वास्तव में उन्होंने अपनी लेखनी की ताकत को जता दिया कि हम वास्तव में मर्द है।सोचता हूँ इन ग्रंथकारों में यदि महिलाएं भी होती तो पुरुषों के लिए भी कम से कम पत्नीव्रत तो जुड़ता।उन ग्रंथकारों की नजर में शायद पुरुष ही जीवात्मा रहा है स्त्री जाति तो शायद कोई पुतला है जो शराबी पति की मार खाते हुए भी पतिव्रत धर्म का पालन करती रहे और करवा चौथ व सुहागदशमी के दिन उनकी दीर्घायु की प्रार्थना करती रहे।ऐसी ये शास्रीय बातें व्यक्ति को सुखी करने के बजाय और दुखी करने में कारण बनती है क्योंकि प्रत्येक पति अपनी पत्नी को पतिव्रता के रूप में देखना चाहता है और खुद उसका मालिक बना रहना चाहता है उसे यह नहीं विचार आता कि अपने माँ बाप के प्यार को छोड़कर तेरे एक अनजान परिवार को इसने अपना माना है यह क्या उसका कम त्याग है।

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