गुरु बनाने की परम्परा

"गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।। महात्मा कबीर दास जी के लगभग 500 वर्ष पूर्व लिखित उपरोक्त दोहे का वर्तमान में जमकर लाभ उठाया जा रहा है।कल से ब्लॉग में परम्पराओं के अंधानुकरण पर चर्चा चल रही है इसी बात को आगे बढ़ाते हुए आज इस प्रचलित दोहे पर थोडा विचार करते हैं।उपरोक्त दोहे में कबीरदासजी ने गुरु की महिमा का बखान करते हुए उसे भगवान से भी ऊँचा दर्जा दिया है और उसे प्रथम वंदनीय बताया है।बात है भी सौ टका सही की गुरु ही हमारा मार्गदर्शक होता है और जो भी हमें मार्ग बताये वो सम्माननीय होना ही चाहिए।अब थोडा परम्परावादी दृष्टिकोण से इस बात पर विचार करते हैं।कबीर के समय में शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल हुआ करते थे जहाँ पर बालक के सर्वांगीण विकास का दायित्व गुरु ही संभाला करते थे वे ही बालक को लौकिक और पारलौकिक जो भी गुरुकुल की व्यवस्था होती थी उसके अनुसार उसके भविष्य का खाका खींचा करते थे इसमें उनका निजी हित न होकर सारा हित बालक का ही हुआ करता था तो जाहिर सी बात है जो व्यक्ति अपना सर्वस्व बालक के हित में समर्पित कर दे वो तो सम्माननीय होगा ही।अब हम इसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो स्थितियां बिल्कुल भिन्न नजर आती है आज न तो गुरुकुल है और न ही उस प्रकार की जिम्मेदारी और अगर सही मायने में देखें तो आज ज्ञान प्राप्ति के अनेकों मार्ग बन चुके है और व्यक्ति को यदि कहीं से भी कोई हित की शिक्षा मिलती है तो वो ही उसका उस क्षेत्र का गुरु होता है और सम्माननीय होता है चाहे वो पशु ही क्यों न हो।लेकिन जो परम्परावादी लोग है उनकी नजर में तो आज भी उसी कबीर जी के गुरु की मूर्ति दिमाग में फिट है जिसका फायदा आज के तथाकथित व्यवसायी और ढोंगी गुरु उठा रहे हैं बस महात्मा कबीर जी का यह दोहा उनकी दुकानदारी चलाने के लिए प्रयाप्त है इसी दोहे के भ्रमजाल से भ्रमित लोग शिष्यत्व ग्रहण कर लेते है और गुरूजी के शिष्यों की संख्या बढ़ाने में भी भरपूर सहयोग करते हैं और शिष्यों की इस ताकत के बल पर उनको त्याग और वैराग्य के उपदेश देकर स्वयं ऐशोआराम की जिंदगी जीता है।शिष्य इतने अंधे हो जाते हैं की यदि गुरूजी की कभी कोई गलती पकड़ भी लेते हैं तो भी आँख मूंद लेते हैं और कभी कहीं से कोई सबूतपूर्वक आरोप लगता है तो भी गुरु के पक्ष में ताल ठोककर खड़े नजर आते हैं ।यदि थोडा भी विचार किया जाये तो यह बात समझ में नहीं आती की आज गुरु बनाने की आवश्यकता ही नजर नहीं आती क्योंकि प्रकृति और दुनिया की हर एक चीज से हमें सीखने को मिल रहा है आधुनिक तकनीकों से हम हमारी रूचि के अनुसार विषयों पर जानकारी एकत्र कर सकते हैं तो फिर इन गुरुओं की आवश्यकता कहाँ रह जाती है क्योंकि जिस आशीर्वाद के लालच में इंसान पड़ा हुआ रहता है की गुरु के आशीर्वाद से मेरा कल्याण हो जायेगा तो मेरा उन आस्थावान लोगों से कहना है कि खुद के कल्याण के लिए खुद को ही पुरुषार्थ करना होगा दुनियां आशीर्वादों के भरोसे नहीं चलती।रही बात जीवन की समस्याओं की तो जब तक जीवन है तब तक समस्याएं तो रहेंगी अपनी समस्या का हल खुद को ही खोजना होगा इन गुरुओं के भरोसे तो समस्याएं कुछ बढ़ ही सकती है कम होने का तो मात्र एक सपना है सो देखते रहो आपका सुखी होने का सपना ही तो इन गुरुओं की चांदी है। तो थोडा विवेक का प्रयोग करें और परम्पराओं के अंधानुकरण में अपने को ठगने से बचाएं नेक कर्म करें और मस्त रहें जीवन में जो गठित हो रहा है अच्छा या बुरा यदि उसे बदलने की ताकत हो तो बदल दे और न बदल सके तो हर घटना को प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्रसाद समझे और अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन करें

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